रणवीर सेना का सत्य




रणवीर सेना, भारत के बिहार प्रांत का एक जातीय संगठन है, जिसका मुख्य उदेश्य बड़े जमींदारों की जमीनों की रक्षा करना हुआ करता था। रणवीर सेना की स्थापना 1995 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई थी। इसकी स्थापना के पीछे की प्रमुख वजह बिहार के सवर्ण और बड़े और मध्यम वर्ग के किसानों का भाकपा माले नामक नक्सली संगठन से त्रस्त होना था। वैसे माले जैसी प्रतिबंधित संगठन भी कथित रूप से गरीबों के लिए लड़ाई लड़ती है।अक्सर माले जैसे प्रतिबंधितसंगठन किसी भी जमींदार के जमीन पर लाल झंडा लगा देते थे, और उस किसान को धमकी दिया करते थे कि अगर वो वहां पहुंचा तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में परेशान किसान किसी विकल्प की तलाश में थे।

किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की।बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महासंघ के गठन का ऐलान किया गया। तब, खोपिरा के पूर्व मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह सहित कई लोगों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी| इन लोगों ने गांव -गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया।

आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे, फिर अवैध हथियारोंका जखीरा भी जमा होने लगा। भोजपुर में वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे। जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा-माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था। करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी। खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में कामकरने से जबरन रोक दिया जाता था।कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थी।

इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया। रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है। भोजपुर में संगठन बनने के बाद पहला नरसंहार हुआ सरथुआं गांव में, जहां एक साथ पांच मुसहर जाति के लोगों की हत्या कर दी गयी। बाद में तो नरसंहारों का सिलसिला हीं चल पड़ा। बिहार सरकार ने सवर्णो की इस सेना को तत्काल प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन हिंसक गतिविधियां तब भी जारी रही। प्रतिबंध के बाद रणवीर संग्राम समिति के नाम से इसका हथियारबंद दस्ता विचरण करने लगा। दरअसल भाकपा माले हीं इस संगठन को रणवीर सेना का नाम दे दिया और इसे सवर्ण सामंतों की बर्बर सेना कहा जाने लगा। एक तरफ भाकपा माले का दस्ता खून बहाता रहा तो प्रतिशोध में रणवीर सेना के हत्यारे खून की होली खेलते रहे।

करीब पांच साल तक चली हिंसा-प्रतिहिंसा की लड़ाई के बाद धीरे-धीरे शांति लौटी, लेकिन इस बीच मध्य बिहार के जहानाबाद, अरवल, गया, औरंगाबाद, रोहतास, बक्सर और कैमूर जिलों में रणवीर सेना ने प्रभाव बढ़ा लिया| अगर माले की बात करें तो वो खुद को गरीबों की हितैषी बताती है, और उनके हित के लिए ही लड़ती रही है। जब सवर्णों का अत्याचार गरीबों पर बढ़ा तो नक्सलियों ने उनका सहयोग किया और उनका हक दिलाने की कोशिश की। इसके लिए वे खून खराबे करते रहे। इस जद में बेगुनाह लोग भी आए। कुल मिलाकर कहा जाए तो नक्सली और रणवीर सेना दोनों ने सरकार को सीधे चुनौती देते हुए अपने मामले अपने तरीके से सुलझाने लगी। जिससे सरकार ने माले के बाद रणवीर सेना को भी प्रतिबंधित कर दिया। बाद के दिनों में ब्रह्मेश्वर मुखिया द्वारा राष्ट्रवादी किसान महासंघ नामक संगठन का निर्माण किया गया. महासंघ ने आरा के रमना मैदान में कई रैलियां की और कुछ गांवों में भी बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम हुए। जगदीशपुर केइचरी निवासी राजपूत जाति के किसान रंग बहादुर सिंह को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया। आरा लोकसभा सीट से रंगबहादुर सिंह ने चुनाव भी लड़ा और एक लाख के आसपास वोटपाया।

रणवीर सेना के संस्थापक सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखियाजी पटना में नाटकीय तरीके से पकड़ लिये गये। जेलमें रहते हुए उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव लड़ा और डेड़ लाख वोट लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया। आज की तारीखमें रणवीर सेना की गतिविधियां बंद सी हो गयी थीं, लेकिन मुखिया की हत्या के बाद कहीं फिर से रणवीर सेना का खूनी खेल ना शुरू हो जाए।

भारतीय संसद : एक रंग-मंच



हमारा भारतीय संविधान और संसद बहुत ही बारीकी से हमारे वातावरण पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालता है. यहाँ से किये गए निर्णय और निर्णयों पर की गयी परिचर्चा का सीधा असर एक आम आदमी के जीवन पर पड़ता है. तो ऐसी स्थिती में हमारा और शायद हमारी जनता का भी ये मानना होता है कि जो भी मनोनीत व्यक्ति संसद में जाये, जो हमारी बात वहाँ रख सके; वो और कुछ नहीं तो कम-से-कम भारत और भारतीय राजनीती का क..ख..ग.. तो जानते हो. लेकिन दुर्भाग्यवश, हमारे भारत में ऐसा कम ही होता है.

अब बात आती है, संसद के सदनों की;
राज्य सभा : राज्य सभा के सदस्यों में 12 सदस्य ऐसे होते हैं जो राष्ट्रपति द्वारा विभिन्न क्षेत्रों( कला, भाषा, विज्ञानं या समाज कल्याण) में अपने बहुमूल्य योगदान की वजह से चुने जाते हैं.

अभी, दो दिनों पहले कि बात ही ले लीजिए, मैंने रेखा जी का शपथ ग्रहण कार्यक्रम टी.वी. पर देख रहा था; तो रा.ज.द. सुप्रीमो लालू जी के विचार सुन कर बड़ा अजीब सा लगा. उनका कहना था, रेखा एक अच्छी अदाकारा हैं और उनका सांसद में होना सांसद के लिए गौरव कि बात है; वो एक अच्छी अदाकारा तो हैं ही तो एक अदाकारा का सांसद में क्या काम?


हमारे संसद में अकबर के दरबार की तरह नौ-रत्न, जमा करने कि जरुरत संविधान को क्यूँ पड़ी. ये 12 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य, संसद के क्रिया-कलाप में कोई भी सक्रिय भूमिका नहीं निभाते हैं. मगर, कहने को तो सांसद कहे जाते हैं. मैं यहाँ कुछ एक ऐसे संसादों का जिक्र करना चाहूँगा.....

1] लाता मंगेशकर जी
2] जावेद अख्तर साहब
3] राज बब्बर साहब
4] जाया भादुड़ी जी
5] स्मृति ईरानी जी
6] रेखा गणेशन जी (नव-मनोनीत)
7] जाया प्रदा जी
8] गोविंदा जी
9] चिरंजीवी जी

जी, मैं जनता हूँ कि ये सारे महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा मनोनीत नहीं हुए हैं. मगर हैं तो कला जगत के ही. और जहाँ तक मेरी समझ है ये सभी राज्यसभा के ही सदस्य हैं तथा भारतीय राजनीती के श्रोता हैं जो बस सांसद में बैठ कर, वहां होने वाली परिचर्चाओं का लुफ्त उठाने कभी कभार सांसद में दिख जाते हैं. अरे! इनकी जगह, अगर अमर्त्य सेन जी को राज्य-सभा में सम्मिलित किया होता तो कहीं कुछ फायदा होता. 

मैं एक स्वतन्त्र देशा का निष्पक्ष नागरिक होने के नाते ये जानने का इक्षुक हूँ कि क्या इन नौ-रत्नों से देश कि जनता जनता कुछ अपेक्षा रख सकती है? क्या हमारे सांसद, हमारी संसद को रंग-मंच समझते हैं? जहाँ ये नेता अपना मनोरंजन कर सकें? खैर, इसी लिए तो कहते हैं.... मेरा भारत महान..

 

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